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Synopsis

एआरटी तकनीकें - विज्ञान ने आम आदमी को अपने निःसंतानता से संबंधित मुद्दों को हल करने के उन्नत तरीके पेश किए हैं। यहां हम कुछ तकनीकियों का जिक्र करेंगे जिससे दम्पतियों की निःसंतानता का उपचार किया जा सकता है।

 

एक साल तक असुरक्षित संबंध बनाने के बाद भी गर्भधारण में असमर्थता निःसंतानता है। दुनिया को अब यह भी समझ में आ गया है कि निःसंतानता से जुड़ी समस्याओं के लिए पुरुष और महिला दोनों समान रूप से जिम्मेदार हो सकते हैं। पहले लोग इसे अच्छा नहीं मानते थे लेकिन अब इनफर्टिलिटी क्लीनिक द्वारा प्रदान किए जा रहे उपचारों को स्वीकार कर रहे हैं। निःसंतानता की जांचो में महिला साथी में चेक-अप जैसे ओव्युलेशन टेस्ट, ट्यूब्स की स्थिति आदि और पुरुष के लिए वीर्य विश्लेषण में विभिन्न मापदंड जैसे संख्या, गतिशीलता, आकृति और जीवित रहने की शक्ति शामिल हैं। यह इंडस्ट्री पिछले कुछ दशकों में काफी तेजी से बढ़ी है, क्योंकि विज्ञान ने आम आदमी को अपने निःसंतानता से संबंधित मुद्दों को हल करने के उन्नत तरीके पेश किए हैं। इसमें किस तरह की तकनीकें उपलब्ध हैं, इस पर एक नजर डालते हैं।

यहां हम कुछ तकनीकियों का जिक्र करेंगे जिससे दम्पतियों की निःसंतानता का उपचार किया जा सकता है –

1. अंतगर्भाशयी गर्भाधान (आईयूआई) –

यह रोगियों के लिए कृत्रिम गर्भाधान का पहला उपचार है। अस्पष्ट निःसंतानता (10 प्रतिशत), पुरूष कारक जैसे लगभग 10-15 मिलियन प्रति एमएल शुक्राणु काउन्ट या टीएमएफ 1-5 मिलियन प्रति एमएल या जननांग रोग । आईयूआई के दिन सीमन तैयारी (वॉश कर अच्छे शुक्राणुओं का चयन) की जाती है और एक विशेष कैथेटर द्वारा गर्भाशय गुहा में इसे इंजेक्ट किया जाता है । इसकी एक साइकिल की सफलता दर लगभग 15 प्रतिशत है। यह तकनीक बहुत सरल है और ओव्युलेशन दवाओं के साथ या इसके बिना उपयोग की जा सकती है।

2. इन-विट्रो फर्टिलाइजेशन (आईवीएफ) –

यह तकनीक अब आम लोगों में काफी प्रचलित हो रही है। यह सबसे सरल, सुरक्षित, प्रभावी और किफायती तकनीक है। इस तकनीक में नियंत्रित ओवेरियन स्टीमुलेशन के लिए 10-12 दिनों तक रोजाना गोनाओट्रोपिन इंजेक्शन दिये जाते हैं। ओवम पिकअप के दिन महिला साथी को ऐनेस्थिसिया देकर अंडाशय से अण्डे निकाल लिये जाते हैं और पुरुष साथी से प्रयोगशाला में वीर्य का नमूना लिया जाता है। निषेचन की प्रक्रिया शरीर के बाहर प्रयोगशाला में की जाती है जहां हजारों जीवित, गतिशील और अच्छे आकार के शुक्राणु सफल निषेचन के लिए अण्डे के साथ रखे जाते हैं। इससे भ्रूण बन जाते हैं और इनमें से अच्छे भ्रूण को गर्भाशय में स्थानान्तरित किया जाता है ताकि गर्भधारण हो सके।

3. इक्सी (इंट्रा साइटोप्लाज्मिक स्पर्म इंजेक्शन) –

पारंपरिक आईवीएफ की तुलना में एक उन्नत तकनीक है । इसमें प्राप्त शुक्राणु और गेमेट्स तो आईवीएफ के समान ही होते है लेकिन आईवीएफ में निषेचन के लिए प्रयोगशाला में अण्डों के सामने शुक्राणुओं को छोड़ा जबकि इक्सी में एक शुक्राणु को सीधे एक परिपक्व अण्डे में इंजेक्ट किया जाता है। इस तकनीक का उपयोग आमतौर पर पुरुषों में कम शुक्राणु और गतिशीलता में कमी जैसे असामान्य सीमन पेरामीटर्स के साथ या आब्सट्रेक्टिव एजूस्परमिया के मामलों में किया जाता है। ऐसे रोगियों में शुक्राणुओं का सर्जिकल रिट्रीवल निम्नलिखित तकनीकों में से एक के माध्यम से किया जा सकता है पहले एक बार उचित हार्मोनल स्थिति देख ली जाएं जैसे सीरम एफएसएच, एलएच, टेस्टोस्टेरोन, पीआरएल, टीएसएच आदि ।

भिन्न तकनीकें निम्न हो सकती हैं –

a) मेसा –माइक्रोसर्जिकल एपिडीडायमल स्पर्म एस्पिरेशन में एपिडीडायमिस का विच्छेदन शामिल है जो माइक्रोस्कोप के उच्च-शक्ति ऑप्टिकल मेगनीफिकेशन से एकल ट्यूब्ले के चीरे का उपयोग करता है। एपिडीडायमल नलिका से द्रव निकलता है जो एपिडीडायमल बेड में एकत्र हो जाता है और फिर इस द्रव को निकाला जाता है।

b) पिसा – पेरक्युटेनीयस एपिडीडायमल स्पर्म ऐस्पीरेशन- एक छोटी सुई को सीधे एपिडीडायमिस के सिर में अंडकोष की त्वचा और तरल पदार्थ के माध्यम से डाला जाता है जिसमें शुक्राणु शामिल हो सकते हैं। इस तकनीक में सर्जिकल चीरे की आवश्यकता नहीं होती है लेकिन लोकल या सामान्य एनेस्थिसिया की आवश्यकता हो सकती है।

c) टेसे / टीसा – टेस्टीक्यूलर स्पर्म एक्सट्रेक्शन – यह वृषण/ अंडकोष की एक सर्जिकल बायोप्सी है । इसमें वृषण में एक सुई डालकर कर नकारात्मक दबाव के साथ तरल पदार्थ और ऊतक को प्राप्त किया जाता है। भ्रूणविज्ञानी शुक्राणुओं को द्रव या ऊतक से प्राप्त करते हैं और उन्हें आईसीएसआई (इक्सी) के लिए तैयार करते हैं।

4. भ्रूण स्थानांतरण –

आईवीएफआईसीएसआई के बाद यदि शुक्राणु और अंडाणु एक दूसरे के साथ जुड़ते हैं तो अगले दिन दो न्यूक्लियस/ नाभिक दिखाई देते हैं और यह सफल निषेचन की पुष्टि करते हैं। सामान्यतौर पर लगभग 75 प्रतिशत परिपक्व अंडे निषेचित होंगे। तीसरे दिन तक अब इसे भ्रूण कहा जाता है और सामान्य रूप से विकसित भ्रूण में 6-10 कोशिकाएं होंगी। इन भ्रूणों को 5/6 दिन तक विकसित किया जाता है । इस दिन के भ्रूण को ब्लास्टोसिस्ट के रूप में जाना जाता है, जिसमें फ्लूइड केविटी बनती है और प्लेसेंटा और भ्रूण के ऊतकों का अलग होना शुरू होता है। इस चरण में भ्रूण स्थानान्तरण एक विशेष कैथेटर के माध्यम से किया जाता है और यदि यह सफल होता है तो स्थानान्तरण के 1 या 2 दिनों के भीतर प्रत्यारोपण हो जाएगा। आरोपण प्रक्रिया में ब्लास्टोसिस्ट जोना पेलुसीडा नामक अपने आवरण से बाहर निकलता है और एक सफल गर्भावस्था को प्राप्त करने के लिए गर्भाशय में एंडोमेट्रियम से चिपक जाता है।

5. लेजर असिस्टेड हैचिंग –

यह एक माइक्रो मेनीपुलेशन प्रक्रिया है जिसमें भ्रूण के जोनो पेलुसीडा में लेजर हैचिंग की मदद से भ्रूण स्थानांतरण से पहले छेद किया जाता है। यह आमतौर पर 35 वर्ष से उपर की आयु के या बार-बार आरोपण विफलता (आरआईएफ) के रोगियों में कारगर है।

6. प्रीइम्प्लांटेशन जेनेटिक टेस्टिंग (पीजीटी) –

यह एक उन्नत परीक्षण है जिसमें विकासशील 3 या 5 दिन के भ्रूण की बायोप्सी की जाती है और कोशिकाओं को आनुवांशिक विसंगतियों के परीक्षण के लिए भेजा जाता है। प्री इम्पलांटेशन जेनेटिक टेस्टिंग फोर एन्यूप्लोइडी (पीजीटीए) या प्रीइम्पलांटेशन आनुवंशिक परीक्षण (पीजीएस) क्रोमोसोमल संरचनात्मक पुर्नव्यवस्था/रिअरेजन्मेंट (पीजीटी-एसआर) के लिए जिसे पहले प्रीइम्पलांटेशन जेनेटिक स्क्रीनिंग (पीजीएस) के रूप में जाना जाता है, यह निर्धारित करने के लिए उपयोग किया जाता है कि भ्रूण में कोशिकाओं में सामान्य संख्या में गुणसूत्र हैं, वह बिना किसी संरचनात्मक विकार के साथ 46 हैं। मोनोजेनिक / एकल जीन दोषों (पीजीटी-एम) के लिए प्रीप्लांटेशन जेनेटिक परीक्षण, जिसे पूर्व में प्रीइम्प्लांटेशन जेनेटिक डायग्नोसिस (पीजीडी) के रूप में जाना जाता है को आमतौर पर कुछ आनुवंशिक विकार या गंभीर बीमारी के ज्ञात पारिवारिक इतिहास वाले या उम्रदराज जोड़ों द्वारा चुना जाता है और उन्हें इसके संतान में संचारित होने का संदेह रहता है।

7. क्रायोप्रेजर्वेशन –

इसने आईवीएफ उद्योग में क्रांति ला दी है। इसमें भविष्य के उपयोग करने के लिए भ्रूण, अण्डे और शुक्राणु को -196° सेल्सियस पर फ्रीज किया जाता है। यह तकनीक आईवीएफ साइकिल की बेहतर योजना बनाने के लिए भी उपयोगी है। पहले धीमी गति से फ्रीजिंग विधि का उपयोग किया जाता था लेकिन यह वर्तमान की रैपिड विट्रीफिकेशन प्रक्रिया की तरह सफल नहीं थी। यह देखा गया है कि विट्रीफाइड भ्रूण को सफलतापूर्वक सामान्य तापमान पर लाकर फिर उपयोग करने से बेहतर प्रेगनेंसी परिणाम प्राप्त होते हैं।

ये कुछ प्रमुख तकनीकें है जिनका इस्तेमाल अब आम हो गया है। 1978 में पहली “टेस्ट ट्यूब बेबी- लुईस ब्राउन” के जन्म के बाद से अब इस क्षेत्र में काफी एडवांसमेंट हो गया है जिससे निःसंतानता से जूझ रहे दम्पतियों को इसके खिलाफ लड़ाई जीतने की उम्मीद में सकारात्मक परिवर्तन हो गया है। मातृत्व सुख अब हर रोज नई और उभरती तकनीकियों के साथ कई लोगों द्वारा चुना जा सकता है इसमें समय के साथ नवाचार हो रहे हैं।


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